बुधवार, 24 मार्च 2010

'ब्राम्हण राजनीति'

मंडल कमीशन लागू होने के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में जातिगत राजनीति का जो दौर शुरू हुआ, वह एक बार फिर करवट ले रहा है. पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान शुरू हुई 'ब्राम्हण राजनीति' अब सिमटने लगी है. महिला आरक्षण बिल आने के बाद राजनीतिक दलों का लगाव एक बार फिर मुसलमानों दलितों और पिछडों की ओर बढने लगा है.यह सारे दल अब २००७ विधानसभा चुनाव की पूर्व की स्थिति पर लौट रहे है.उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज बसपा ने भी अब ब्राम्हण वर्ग से किनारा कसना शुरू कर दिया है. हाल ही में उसने जहां एक तरफ अपने सबसे बडे ब्राम्हण नेता सतीश चन्द्र मिश्र का राजनीतिक कद छोटा कर दिया, वहीं उच्च पदों पर बैठे आला अधिकारियों को कम महत्व वाले पदों पर बैठाना शुरू कर दिया है. यही नही, राज्य सरकार की ओर से हाल ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय और जिलों में पूर्व में नामित किये गयें १४५ सरकारी वकीलों की सेवाये खत्म करने के आदेश दिये गयें हैं इनमें ७० ब्राम्हण वकील है,सूत्रों का कहना है कि बसपा इन रिक्त स्थानों पर दलितों पिछडों तथा अल्पसंख्यकों को नामित करने जा रही है.

उत्तर प्रदेश की राजनीति में कांग्रेस के पराभव के बाद १९९० .९१ में अयोध्या आन्दोलन के चलते ब्राम्हण भाजपा का वोट बैंक बन गया था , जिसके कारण भाजपा ने २२१ सीटे हासिल कर पहली बार सरकार बनायी. इसके बाद भाजपा २००२ तक एक- दो वर्षों को छोडकर किसी न किसी तरह सत्ता से जुडी रही. इसके बीच पार्टी में शुरू हुए सोशल इंजीनियिरिंग के कारण यह वर्ग भाजपा से अलग होकर किसी विकल्प की तलाश में इधर-उधर भटकता रहा.उसकी यह तलाश २००७ के विधानसभा चुनाव में पूरी हुई जब बसपा ने अपनी रणनीति बदलते हुए १३९ सवर्ण प्रत्याशियों में से ८६ टिकट ब्राम्हणों को दिये, जिनमें से ३६ प्रत्याशी चुनाव जीत कर आयें.
ब्राम्हणों के दम पर सत्ता की चाभी मायावती के हाथ में आने के बाद हर दल ने ब्राम्हण राजनीति शुरू दी. भाजपा ने जहां डा.रमापति राम त्रिपाठी को पार्टी का अध्यक्ष बनाया, वहीं कांग्रेस ने १० वर्ष बाद डॉ रीता जोशी को अध्यक्ष बनाकर किसी ब्राम्हण को पार्टी की कमान सौंपने का काम किया. यही नही, यादव और मुस्लिम राजनीति करने वाली समाजवादी पार्टी ने भी सनातन सभा के कृपाशंकर मिश्र को ब्राम्हणों को पार्टी से जोडने की जिम्मेदारी सौंपी.

दरअसल, महिला आरक्षण बिल का मामला आने के बाद से अब राजनीतिक दलों की निगाहें ब्राम्हणों के ९ प्रतिशत वोट बैंक की बजाय १८ प्रतिशत मुस्लिम, २१ प्रतिशत अनुसूचित जाति और ४० प्रतिशत पिछडी जाति के वोट बैंक पर टिक गयी है. इसीलिए कल्याण से दोस्ती कर धोखा खाने वाले मुलायम सिंह ने हाल ही नेलोपा के डा. मसूद अहमद को शामिल करने के साथ ही रामआसरे कुशवाहा तथा विशम्भर निशाद को पार्टी का महासचिव बनाया है,

उधर.कांग्रेस भी आगामी विधानसभा चुनाव जीतने की जी तोड कोशिष में जुट गयी है उसकी निगाह बसपा के परम्परागत दलित वोटों पर लगी हुई है. जिसके लिए पार्टी रणनीतिकार तरह तरह की योजनाये बना रहे है.अब कांग्रेस के संगठन चुनाव होने के बाद डा रीता जोशी का हटना तय है, जिसके बाद पार्टी की कमान किसी मुस्लिम, दलित अथवा पिछडी जाति के नेता को सौंपने की योजना है. इसी तरह भाजपा में प्रदेश अध्यक्ष डा रमापति राम त्रिपाठी का कार्यकाल भी खत्म होने को है, भाजपा में किसी ब्राम्हण नेता की बजाय किसी अन्य जाति के नेता को अध्यक्ष बनाने पर विचार चल रहा है,.
ब्राम्हणों की बढती उपेक्षा पर कानपुर ब्राम्हण जागरूक मंच के रामकुमार वाजपेयी कहते हैं कि ब्राम्हण न तो कभी किसी एक दल से जुडा रहता है और न ही वह जातिवादी होता है वह तो देश और समाज के हित का ध्यान रखता है, ब्राम्हण यदि जातिवादी होता, तो देश में राम कृष्ण नही बल्कि प्रकाण्ड ज्ञानी रावण की पूजा की जाती.

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